🌹पिता और बेटी की मजबूरी 🌹
निशा काम निपटा कर बेटी ही थी कि फोन की घंटी बजने लगी। मेरठ से विमला चाची का फोन आया था,"बिटिया अपने बाबूजी को आकर ले जाओ यहां से, बीमार रहने लगे हैं, बहुत कमजोर हो गए हैं। हम भी कोई जवान तो हो नहीं रहे हैं, अब उनका करना बहुत मुश्किल होता जा रहा है। वैसे भी आखिरी समय अपने बच्चों के साथ बिताना चाहिए।"
निशा बोली,"ठीक है चाची जी इस रविवार को आते हैं, बाबूजी को हम दिल्ली ले आएंगे।" फिर इधर उधर की बातें करके फोन काट दिया।
बाबूजी तीन भाई हैं, पुश्तैनी मकान है तीनों वही रहते हैं। निशा और उसका छोटा भाई विवेक दिल्ली में रहते हैं अपने अपने परिवार के साथ। तीन चार साल पहले विवेक को फ्लैट खरीदने के लिए पैसे की आवश्यकता पड़ी तो बाबू जी ने भाइयों से मकान के एक तिहाई हिस्से का पैसा लेकर विवेक को दे दिया था, कुछ खाने पहहने के लिए अपने लायक कुछ पैसा रख दिया। दिल्ली आना नहीं चाहते थे इसलिए एक छोटा सा कमरा रख लिया था जब तक जीवित है तब तक के लिए।
निशा को लगता था कि अम्मा के जाने के बाद बिल्कुल अकेले पड़ गए होंगे बाबूजी लेकिन वहां पुराने परिचितों के बीच उनका मन लगाता था। दोनों चाचिया भी ध्यान रखती थी। दिल्ली में दोनों भाई बहन की गृहस्ती भी मजे से चल रही थी।
रविवार को निशा ओर विवेक का कार्यक्रम बन पाया मेरठ जाने का। निशा के पति अमित एक व्यस्त डॉक्टर है महीने की लाखों की कमाई है उनका इस तरह से छुट्टी लेकर निकलना बहुत मुश्किल है, मरीजों की बीमारी न रविवार देखती है न सोमवार। विवेक की पत्नी रेनू कि अपनी जिंदगी है उच्च वर्गीय परिवारों में उठना बैठना है उसका, इस तरह के छोटे-मोटे पारिवारिक पचड़ों में पडना उसे पसंद नहीं।
रास्ते भर निशा को लगा विवेक कुछ अनमना , गुमसुम सा बैठा है। वह बोली,"इतना परेशान मत हो, ऐसी कोई चिंता की बात नहीं है, उम्र हो रही है, थोड़े कमजोर हो गए हैं ठीक हो जाएंगे।"
विवेक जिकंते हुए बोला,"अच्छा खासा चल रहा था, पता नहीं चाचा जी को ऐसी क्या मुसीबत आ गई, दो चार साल और रख लेते तो। अब तो मकानों के दाम आसमान छू रहे हैं, तब कितने कम पैसों में अपने नाम करवा लिया तीसरा हिस्सा।"
निशा शांत करने की मंशा से बोली,"ठीक है ना उस समय जितने भाव थे बाजार में उस हिसाब से दे दिए। और बाबूजी आखरी समय अपने बच्चों के बीच बिताएंगे तो उन्हें अच्छा लगेगा।"
विवेक उत्तेजित हो गया, बोला,"दीदी तेरे लिए यह सब कहना बहुत आसान है, 3 कमरों के फ्लैट में कहां रखूंगा उन्हें। रेनू से किट किट रहेगी सो अलग, उसने तो साफ मना कर दिया है वह बाबूजी का कोई काम नहीं करेगी। वैसे तो दीदी लड़कियां हक मांगने तो बड़ी जल्दी खड़ी हो जाती है, करने के नाम पर क्यों पीछे हट जाती है। आजकल लड़कियों की शिक्षा और शादी के समय अच्छा खासा खर्च हो जाता है । तू क्यों नहीं ले जाती बाबूजी को अपने घर, इतनी बड़ी कोठी है, जीजाजी की लाखो की कमाई है?"निशा को विवेक का इस तरह बोलना ठीक नहीं लगा। पैसे लेते हुए कैसे वादा कर रहा था बाबू जी से," आपको किसी भी वस्तु की आवश्यकता हो तो आप निसंकोच फोन कर देना मैं तुरंत लेकर आ जाऊंगा। बस इस समय हाथ थोड़ा तंग है।"
नाम मात्र पैसे छोड़े थे बाबूजी के पास, और फिर कभी फटका भी नहीं उनकी सुध लेने।
निशा,"तू चिंता मत कर मैं ले जाऊंगी बाबूजी को अपने घर।"सही है उसे क्या परेशानी, इतना बड़ा घर फिर पति रात दिन मरीजों की सेवा करता है, एक पिता तुल्य ससुर को आश्रय दे ही सकते हैं।
बाबूजी को देखकर उसकी आंखें भर आई। इतने दुबले और बेबस दिख रहे थे, गले लगते हुए बोली,"पहले फोन करवा देते पहले लेने आ जाती।"बाबूजी बोले,"तुम्हारी अपनी जिंदगी है क्या परेशान करता। वैसे भी दिल्ली में बिल्कुल तुम लोगों पर आश्रित हो जाऊंगा।"
रात को डॉक्टर साहब बहुत देर से आए, तब तक पिता और बच्चे सो चुके थे। खाना खाने के बाद सकून से बैठते हुए निशा ने डॉक्टर साहब से कहा,"बाबूजी को मैं यहां ले आई हूं, विवेक का घर बहुत छोटा है, उसे उन्हें रखने में थोड़ी परेशानी होती।"अमित के एकदम तेवर बदल गए, वह सख्त लहजे में बोला,"यहां ले आई हूं से क्या मतलब है तुम्हारा? तुम्हारे पिताजी तुम्हारे भाई की जिम्मेदारी है । मैंने बड़ा घर वृद्ध आश्रम खोलने के लिए नहीं लिया था, अपने रहने के लिए लिया है। जायदाद के पैसे हड़पते हुए नहीं सोचा था साले साहब ने की पिता की भी सेवा करनी भी पड़ेगी। रात दिन मेहनत करके पैसा कमाता हूं फालतू लुटाने के लिए नहीं है मेरे पास।"
पति के इस रूप से अनभिज्ञ थी निशा।"रात दिन मरीजों की सेवा करते हो मेरे पिता के लिए क्या आपके घर और दिल में इतना सा स्थान भी नहीं है ।"
अमित के चेहरे की नसे तनी हुई थी, वह लगभग चीखते हुए बोला,"मरीज बीमार पड़ता है पैसा देता है, ठीक होने के लिए, मैं इलाज करता हूं पैसे लेता हूं। यह व्यापारिक समझौता है इसमें सेवा जैसा कुछ नहीं है। यह मेरा काम है मेरी रोजी-रोटी है। बेहतर होगा तुम एक-दो दिन में अपने पिता को विवेक के घर छोड़ आओ।"
निशा को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था, जिस पति की वह इतनी इज्जत करती है वे ऐसा बोल सकते हैं। क्यों उसने अपने भाई और पति पर इतना विश्वास किया? क्यों उसने शुरू से ही एक एक पैसे का हिसाब नहीं रखा? अच्छी खासी नौकरी करती थी पहले पुत्र के जन्म पर अमित ने यह नौकरी नहीं करने दी और खात में क्या आवश्यकता है तुम्हें किसी चीज की कमी नहीं रहेगी आराम से बेटे की देखभाल करो।
अगर वह नौकरी करके पैसे बचाते तो अपने पिता की सेवा अपने दम पर कर पाती। करने को तो हर महीने उसके नाम के खाते में पैसे जमा होते हैं लेकिन उन्हें खर्च करने की बिना पूछे उसे इजाजत नहीं थी। भाई से भी मन कर रहा था कह दे शादी में जो खर्च हुआ था वह निकाल कर जो बचता है उसका आधा आधा कर दे कम से कम पिता इज्जत के साथ तो जी पाएंगे। पति और भाई दोनों को पंक्ति में खड़ा करके बहुत से सवाल करने का मन कर रहा था, जानती थी जवाब कुछ ना कुछ अवश्य होंगे। लेकिन इन सवाल जवाब में रिश्तो की परते दर परते उखड़ जाएंगे और जो नग्नता सामने आएगी उसके बाद रिश्ते होने मुश्किल हो जाएंगे।अगले दिन अमित के अस्पताल जाने के बाद निशा बाबूजी के पास पहुँची तो हो गए सामान बांधे बेठे थे ।उदासी भरे स्वर मेन बोलें,”मेरे कारण अपनी गृहस्थी मत ख़राब कर । पता नहीं कितने दिन हे मेरे पास कितने नहीं।मेने एक वृद्धाश्रम मे बात कर ली हे जितने पेसे मेरे पास हे,उसमें वे लोग मुझे रखने को तैयार हैं। ये ले पता तू मुझे वहां छोड आ, और निश्चित होकर अपनी गृहस्ती संभाल।"
निशा समझ गई बाबूजी की देह कमजोर हो गई है दिमाग नहीं। दामाद काम पर जाने से पहले मिलने भी नहीं आया साफ बात है ससुर का आना उसे अच्छा नहीं लगा। क्या सफाई देती चुपचाप टैक्सी बुलाकर उनके दिए पते पर उन्हें छोड़ने चल दी। नजर नहीं मिला पा रही थी, ना कुछ बोलते बन रहा था। बाबूजी ने ही उसका हाथ दबाते हुए कहा,"परेशान मत हो बिटिया, परिस्थितियों पर कब हमारा बस चलता है । मैं यहां अपने हम उम्र लोगों के बीच खुश रहूंगा।"
3 दिन हो गए थे बाबूजी को वृद्ध आश्रम छोड़कर आए हुए। निशा का न किसी से बोलने का मन कर रहा था ना कुछ खाने का। फोन करके पूछने की भी हिम्मत नहीं हो रही थी वह कैसे हैं? इतनी ग्लानि हो रही थी कि किस मुंह से पूछे । वृद्ध आश्रम से ही फोन आ गया की बाबूजी अब इस दुनिया में नहीं रहे। 10:00 बज रहे थे बच्चे पिकनिक पर गए थे रात्री 8-9 बजे तक आएंगे, अमित जी तो आते ही 10:00 बजे तक है । किसी की भी दिनचर्या पर कोई असर नहीं पड़ेगा, किसी को सूचना भी क्या देना। विवेक ऑफिस चला गया होगा बेकार छुट्टी लेनी पड़ेगी।
रास्ते भर अविरल अश्रु धारा बहती रही कहना मुश्किल था पिता के जाने के गम में या अपनी बेबसी पर आखिरी समय पर पिता के लिए कुछ नहीं कर पायी। 3 दिन केवल 3 दिन अमित ने उसके पिता को मान और आश्रय दे दिया होता तो वह हृदय से अमित को परमेश्वर मान लेती।
वृद्ध आश्रम के संचालक महोदय के साथ मिलकर उसने औपचारिकताएं पूर्ण की। वह बोल रहे थे,"इनके बहू, बेटा और दामाद भी है रिकॉर्ड के हिसाब से उनको भी सूचना दे देते तो अच्छा रहता।" वह कुछ संभल चुकी थी बोली,"नहीं इनका कोई नहीं है न बहू ना बेटा नाही दामाद। बस एक बेटी है वह भी नाम के लिए।"
संचालक महोदय अपनी ही धुन में बोल रहे थे,"परिवार वालों को सांत्वना और बाबू जी की आत्मा को शांति मिले।"
निशा सोच रही थी,"बाबूजी की आत्मा को शांति मिल ही गई होगी । जाने से पहले सब मोह भंग हो गया था। समझ गए होंगे और किसी का नहीं होता, फिर क्यों आत्मा अशांत होगी।"
"हां परमात्मा उसको इतनी शक्ति दे कि किसी तरह व बहन और पत्नी का रिश्ता निभा सके ।"
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